रविवार, 12 मई 2013

वो व्यक्ति

जिसका चेहरा भावहीन था पर न जाने क्यों आंखे किस तलाश में थी
जिसका तन तो ढ़का था पर न जाने क्यों कपड़े फटे थे
हाथ तो खाली थे पर न जाने क्यों पीठ कूड़े के बोझ से दबी थी
उसके पैरो में न जाने क्यों तेजी थी
शायद उसे कूड़े का ओलम्पिक पाना था
न जाने उसके दिमाग में कौन सा गुड़ा भाग चल रहा था
शायद उसे कूड़े बिनने का इम्तिहान पास करना था
न जाने क्यों समाज के लिए वो घ्रणित और अपवित्र था
शायद इसलिए क्योकि उसका काम कूड़ा बीनने का था 
न जाने क्यों उसे कूड़े के ढ़ेर से इतना अपनापन महसूस होता है
शायद इसलिए क्योकि उसका परिवार कूड़े के सहारे पलता है
न जाने क्यों उसका काम सम्मान और पुरस्कार नहीं पाता
शायद इसलिए क्योकि उसका काम कूड़ा और गन्दगी बटोरना है
न जाने क्यों उसे सून-सान राहो और अँधेरी गलियों से डर नहीं लगता
शायद इसलिए क्योकि उसे अपने बच्चो की भूख से डर लगता है
हमारे देश के नेता और प्रतिनिधि तो ऐसो आराम का जीवन जीते है
पर न जाने क्यों वो व्यक्ति अभावो और कष्टों के बीच जीवन बिताता है
क्योकि उसका काम कूड़ा बिनने का है ......................
क्योकि उसका काम कूड़ा बिनने का है .......................

के एम् भाई
हमारी जिम्मेदारी  और  हमारी जवाबदेही
कहते है अपने दोष को दूसरो पर मड़ना सबसे आसान होता है जब भी समाज में किसी खामी की बात आती है तो हम इसके लिए सरकार को या फिर इस व्यवस्था को या फिर कभी पुलिस आदि को जिम्मेवार बनाते है पर कभी हम खुद इसके लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेते है हम अपनी कोई जवाबदेही नहीं तय करना चाहते है हमें लगता यह समाज सिर्फ सरकार और पुलिस से मिलकर बन है उसमे हमारा कोई रोल नहीं है  मै अपनी इस बात के लिए हाल की दो घटनाओ को आप लोगो के सामने रखना चाहूँगा जो हमें हमारी जवाबदेही तय करने के लिए बाध्य करती है ।
पहली घटना दिसंबर माह की है जब देश की राजधानी में चलती बस में एक लड़की के साथ हैवानियत का खेल होता है और दरिन्दे उस लड़की को सड़क पर फेक कर चले जाते है दो घंटे तक लड़की बीच सड़क पर पड़ी रहती है लोग पास से निकल जाते रहे पर किसी ने उसे अस्पताल ले जाने की जुररत नहीं की आखिर कोई क्यों करेगा यह काम तो पुलिस और सरकार का है हमारा नहीं।  कोई मरता है तो मरने दो हम उसे बचाने की पहल नहीं कर सकते वो हमारी क्या लगती है इन सब बवंडरो के बीच आखिर किसी तरह लड़की अस्पताल पहुंची और उसका इलाज शुरू हुआ।  मीडिया ने कवरेज देना शुरू किया और  धीरे धीरे पूरे देश में बात फ़ैल गयी ।  पूरा देश सन्न रह गया, बहुत सारे युवाओ ने राष्टपति के दफ्तर के बहार प्रदर्शन किया, अनशन, धरना-प्रदर्शन, रैली तोड़-फोड़, विपक्षी दलों की बयानबाजी, दोषियों के लिए फांसी की सजा की मांग,सख्त कानून बनाने की वकालत, पेपरबाजी आदि सब कुछ हुआ और एक नए कानून के लिए प्रस्ताव भी बना और संसद में बहस भी चली और फिर बहस ने थोडा लम्बा समय ले लिए और फिर धीरे शांत पड़ गया।   
अब दूसरी घटना पर आते है अभी हाल ही में कुछ ही दिन पहले हमारे देश की राजधानी एक बार फिर से शर्मसार हुयी।  इस बार एक पांच साल की मासूम  बच्ची दरिंदो का शिकार बनी और एक बार फिर दिल्ली दहल गयी।  लोगो का गुस्सा फिर जाग उठा इस बार लोगो ने पुलिस पर अपना निशाना साधा और विपक्षी दलों को एक बार फिर से सरकार को घेरने का मौका मिल गया, फिर से बहस और चर्चा का माहोल गर्म हो गया, मीडिया को एक बार फिर से अपनी बाजार लगाने का मौका मिल गया और फिर से वही बात उठी सख्त कानून बने, सरकार और पुलिस ज्यादा जिम्मेदार बने, कानून का सख्ती से पालन किया जाये आदि आदि ।
  अब जरा सोचिये क्या सिर्फ कानून बन जाने और उसके लागू होने से यह समस्या समाप्त हो जाएगी। क्या पुलिस को जिम्मेदार बनाने से इस समस्या का हल हो सकता है क्या हर बच्ची और लड़की के साथ साथ पुलिस तैनात हो सकती है, क्या बाजारों में, चौराहों पर, गली गली में पुलिस तैनात होगी, क्या हम अपने इस समाज को एक कारागार बना देना चाहते है जहाँ चौबीसों घंटो पुलिस का साये की तरह पहरा हो, क्या हम फिर से अंग्रेजो जैसी व्यवस्था चाहते है जो हमेशा गुलाम न्बनाये रखना चाहती है चलो मान लेते है एक बार यह सब हो जायेगा तो क्या इन सब के बाद यह घटनाये रूक जाएँगी, लोगो के मन में जो बदमाश बैठा है उसे क्या कोई कानून या फिर पुलिस रोक सकती है हमारे घरो -रिश्तेदारों में जो कलयुगी बैठे है उन्हें क्या कोई कानून पकड़ सकता है नहीं उन्हें दुनिया की कोई पुलिस नहीं पकड़ सकती है और नहीं इस तरह के प्रयासों यह घटनाये रुकने वाली है। नहीं यह घटनाये तब तक नहीं रूक सकती जब तक हम और हमारा समाज इसके लिए खुद जिम्मेवार नहीं बनता। जब तक हम और आप खुद जिम्मेवार नहीं बनते ।  पाशचात्य संस्क्रती की नक़ल ने हमें अँधा बना दिया है हम बहुत तेजी से आधुनिक से आधुनिक बन जाना चाहते है पर हम यह नहीं देख रहे है कि इस आधुनिकता की दौड़ में हम अपने मूल्यों और मर्यादाओ को भूलते चले जा रहे है । हम पर्दा प्रथा जैसी रूढ़ परम्पराओ से तो बाहर निकल आये है पर हम एक आधुनिक परंपरा नंगेपन जैसी घिनौनी परम्पराओ की गिरफ्फत में आ गए है।  आधुनिकता की इस अंधी दौड़ ने आज हमारे समाज को एक ऐसी अश्लीलता की चौखट पर ला खड़ा किया है जहाँ न रिस्तो का लिहाज है और नहीं समाज के प्रति कोई लाज-हया। बस भागते चले जा रहे है और भागते चले जा रहे है । आधुनिकता की दौड़ में । हमारा सिनेमा जो समाज के लिए आईने का काम करता है इस तरह से अश्लीलता और नंगेपन का बड़ा श्रोत बन गया है कि  जहाँ मनोरंजन के नाम पर सिर्फ स्त्री के शरीर को प्रदर्शित किया जाता है जो जितना ज्यादा शरीर दिखा ले वो उतना अधिक सफल और लोकप्रिय माना जाता है विज्ञापनों में किसी प्रोडक्ट का प्रदर्शन कम स्त्री के शरीर का ज्यादा प्रचार किया जाता है हर जगह सिर्फ स्त्री का बदन ही एक सबसे ज्यादा बिकाऊ चीज बची है। चाहे जैसे बेच लो । कोई रोक टोक नहीं है ।
क्या हमें नहीं लगता कि हमारे चारो तरफ जिस तरह का बदन उघाडू समाज बन रहा है कही न कही वो इन सब घटनाओ के लिए एक प्रेरक का रोल अदा कर रहा है। जिस तेजी से हमारे समाज का नैतिक और चारित्रिक पतन हो रहा है क्या वो इन सब घटनाओ के लिए जिम्मेदार नहीं है फैशन की चकाचौंध में जिस तेजी से हम लोग अश्लीलता की आग में कूदते चले जा रहे क्या वो ऐसी घटनाओ के लिए जिम्मेदार नहीं है भौतिक संसाधनों का सुख पाने के चक्कर में हमने अपने संस्कारो का गला घोट दिया है क्या यह जिम्मेदार नहीं इन सब घटनाओ के लिए, हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारे शिक्षक हमारे आस पास का माहोल, हमारे दोस्त, हमारे मित्र, हम सभी बराबर बराबर जिम्मेदार है और हम सभी को अपनी अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी खुद साबित करनी होगी। तब जा के कही हम इस तरह की घटनाओ पर रोक लगा पाएंगे और एक स्वच्छ सुन्दर और नारी प्रधान समाज का निर्माण कर पाएंगे।  
तो फिर क्या आप तैयार है अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने के लिए ............................

के एम् भाई
cn.- 8756011826

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

जिंदगी का फलसफा
जिंदगी का फलसफा कैसे सुनाऊ तुम्हे
शब्द नहीं मिलते और जुबां भी नहीं खुलती 
आँखे नम है और मन भी खामोस
दर्द है पर आंसू नहीं निकलते
दिल तन्हा  है और उदास भी
न कोई गीत है और न कोई सरगम
रंग भी सूखे है और रोशनी का भी पता नहीं
न कोई राह  और न ही कोई मंजिल
न कोई दोस्त है और न कोई सम्बन्धी
बस टूटे हए अरमानो के साथ एक अधमरा सा शरीर
साँस है भी तो मगर जीने की इच्छा नहीं !
जिंदगी का फलसफा कैसे सुनाऊ तुम्हे ...............................
जिंदगी का फलसफा कैसे सुनाऊ तुम्हे ..............................

के. एम्.भाई
ग्रामीण महिला और अधूरे सपने
एक अदद जहाँ घूमने की आजादी मिल जाये अगर
सपनो की दुनिया बसाने की एक राह मिल जाये अगर
अपने न भी हो तो कम से कम अपनों का साया मिल जाये अगर
रिस्तो का परिवार न सही बस जिंदिगी जीने का एक बहाना मिल जाये अगर
भूखे पेट को भोजन न सही कम से कम अन्न का एक दाना मिल जाये अगर
चार दिवारी का आशियाना न हो बस रहने का एक ठिकाना मिल जाये अगर
रेशमी कपड़ो का ताना बना न सही कम से कम तन ढ़कने को एक टुकड़ा कपड़ा मिल जाये अगर
सोने चाँदी के आभूषण न हो बस एक चुटकी सिन्दूर का सहारा मिल जाये अगर
दर्द से करहाती देह को दवा न सही कम से कम हाल पूछने वाला कोई मिल जाये अगर
मान सम्मान की माला न सही बस स्वाभिमान को जगाने वाला कोई मिल जाये अगर
सुख सौन्दर्य न सही कम से कम बहते आसुओ को पोछने वाला कोई मिल जाये अगर
एक अदद जहाँ घूमने की आजादी मिल जाये अगर ............................
सपनो की दुनिया बसाने की एक रह मिल जाये अगर ...........................

के.एम्. भाई
cn.- 8756011826
लोकतंत्र मर गया है ?

आज फिर सजा है जिला कार्यालय
फरियादी है कागजो का ढेर है
नीली पीली बत्ती वाली गाडियों का आवागमन है
खाकी वर्दी वाले भी है और सफेदपोसो की भी भीड़ है 
जमीन भी वही है और धूप भी घनी है पर मौसम का मिजाज कुछ अजीब है
पेड़ो की डालियों पर आज कोई शोर नहीं है पर फिजाओ में कुछ अजीब सी आवाज गूँज रही है
ये कैसी चीखे है बचाओ बचाओ की पर किसी को सुनाई क्यों नहीं देती
हवा में कुछ अजीब सी महक है जलने की पर आसमान तो साफ़ है
अरे ये क्या जमीन पर माँ- बेटी जिन्दा जल रही है
अरे इन्हें कोई बचाता क्यों नहीं कोई आग बुक्षाता क्यों नहीं
अरे ये भीड़ शांत क्यों है अरे ये इंसानी दिल पत्थर क्यों बना हुआ है
अरे ये खाकी वर्दी वाले आंगे क्यों नहीं बढ्ते अरे ये कोट धारी भी मूक खड़े है
ऐ हवा तू भी आज शांत है और ये बादल भी आज नहीं बरस रहे
अरे ये हजारो की भीड़ वाला कचहरी परिसर आज सूना सूना सा क्यों लग रहा है
अरे कोई वकील, कोई मुंशी, कोई पेशकार, राहगीर कोई भी नहीं जो इन जलती महिलाओ को बचाए
अरे ये डीएम साहब कहाँ गए उन्हें इन महिलाओ की चीख पुकार क्यों नहीं सुनाई देती
अरे क्या सभी की संवेदनाये मर गयी है या फिर दिल पत्थर बन गए है
लगता है इंसानियत मर गयी है नहीं - नहीं
इस देश का लोकतंत्र मर गया है .........................................
इस देश का लोकतंत्र मर गया है .........................................

(यह कविता 11 ओक्टूबर2012 को कानपूर नगर के डीएम कार्यालय के सामने दो महिलाओ ( माँ- बेटी ) द्वारा शासन प्रशासन द्वरा उनकी शिकायत पर कोई सुनवाई न किये जाने की वजह से अपने ऊपर मिटटी का तेल डालकर आग लगा लेने की घटना पर आधारित है ।)
के एम् भाई
कानपुर
cn - 8756011826
ये कैसा तंत्र है

जहाँ जनता रोती है और लोकतंत्र हँसता है
न्यायलय भी कैसा अँधा है जो सिर्फ दलीले सुन सकता है और तारीखे दे सकता है,
पर उससे न्याय की उम्मीद करना बईमानी है।
पुलिस प्रशासन से लाख मिन्नतें मांग लो पर उनका जमीर नहीं जागता,
मुर्दा भी पड़े-पड़े सड़ जाये वो हाथ भी नहीं लगायेंगे।
राजा (मुख्यमंत्री) के दरबार में आपको पोटली भर आश्वासन तो मिल जायेगा,
पर उस पर कार्यवाही धेला भर भी नहीं होगी।
महामहिम (राष्टपति) का दरबार सबके लिए नहीं खुलता बस चिठ्ठी भेजिए और अगली सदी आने का इंतज़ार करिए,
पता नहीं जब तक नम्बर आयेगा तब आदमी बचेगा या नहीं।
मंत्री - नेता, दलाली और कमीसन खोरी के बगैर अपनी दुम तक नहीं हिलाते,
फ़रियाद सुनना तो दूर की कोड़ी है।
क्यों इसे लोकतंत्र कहते है ?
क्यों नहीं इसे मरा हुआ तन्त्र कहते हैं?
मरा हुआ तंत्र.......................
मरा हुआ तंत्र ..........................

के एम् भाई
cn. - 8756011826